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भारत कृषि प्रधान देश है। कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था व भारतीय जीवन की मुख्य धुरी है। एक समय था जब हमारे देश में खेती को उत्तम, व्यापार को मध्यम और नौकरी को निकृष्ट माना जाता था।

पुराने जमाने में किसी की हैसियत का अनुमान इसी बात से लगाया जाता था कि उसके पास कितनी खेती है लेकिन वर्तमान में खेती को सबसे नीचे का दर्जा दिया जाने लगा है।

इसका एक मात्र कारण है सरकार की कृषि एवं किसानों के उत्थान के लिए नीतियां और उन नीतियों का क्रियान्वयन। हमारे देश में उद्योगों का विकास भी खेती पर निर्भर है। खेती किसानी पूरे देश के नागरिकों को पालती पोसती है। आज की सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था युवा किसानों को गाँवों और खेती-किसानी से पलायन को मजबूर कर रही है। सभी कर्मचारी, अधिकारी, सांसद, विधायक समय-समय पर अपने वेतन बढ़वाने की माँग करते रहे और उनकी माँगे भी मंजूर होती गयीं। सभी नेता और मंत्री किसानों की समस्याओं को लेकर चिंता करते रहते हैं, कृषि क्षेत्र में प्रतिवर्ष बजट में भी वृद्धि की जाती है पर ज़मीनी हक़ीकत यह है कि किसान खेती-किसानी से काफ़ी परेशान हो गये हैं और वे खेती किसानी छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं।

किसानों की सबसे बड़ी परेशानी है पूँजी या लागत का न होना। अपनी घरेलू जरूरतों से लेकर कृषि की लागत तक उन्हें पैसा चाहिए एवं इसके लिए वो साहूकार एवं किसान क्रेडिट कार्ड पर निर्भर रहते हैं। किसान क्रेडिट कार्ड से चूँकि सरलता से पैसा मिल जाता है, अतः इसका उपयोग वो कृषि की जगह अपने सामाजिक एवं घरेलू जरूरतों की पूर्ती में लगा देता है एवं पैसा खर्च होने के बाद किसानी की लागत के लिए साहूकारों के चुंगल में फंस जाता है।

ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले और औसत शिक्षा वाले युवाओं के लिए शहरों में नौकरियों की संख्या में भी काफ़ी गिरावट आई है। कृषि उपज के मूल्यों में कमी, बढ़ती कृषि लागत और बढ़ती महँगाई के कारण खेती किसानी घाटे का धंधा बनती जा रही है। फसलों के बंपर उत्पादन के बावजूद किसानों के फसलों की लागत भी घरेलू बाजार में नहीं निकल पा रही है और किसान फसलों को मंडी तक ले जाने की अपेक्षा सड़कों पर फेंक रहे हैं।

आने वाले समय में कृषि क्षेत्र के हालात बेकाबू हो सकते हैं। जब किसान की फसल बाजार में आती है तो उसका मूल्य लगातार गिरता जाता है। मध्यस्थ लोग सस्ती दरों में किसानों की फसल को क्रय करके ऊँची दरों पर बाजार में विक्रय करते हैं। जब औद्योगिक उत्पादों की कीमत लागत, माँग और पूर्ति के आधार पर निर्धारित होती है तो किसानों की फसलों की कीमत का निर्धारण सरकार या क्रेताओं द्वारा क्यों किया जाता है।

न्यूनतम समर्थन मूल्य कुछ ही नकदी फसलों तक ही सीमित है इस न्यूनतम समर्थन मूल्य नीति को सारी फसलों के लिए लागू किया जाना चाहिए। हर जगह पारदर्शी व्यवस्था है लेकिन फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारण में पारदर्शी व्यवस्था नहीं है। राज्य सरकारें अपने-अपने तरीकों से न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण कुछ ही नकदी फसलों की लिए करती हैं। सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य में बीज, खाद, सिंचाई के लिए बिजली का खर्चा और किसान की मजदूरी शामिल की जाती है इसमें कृषि भूमि का किराया शामिल नहीं किया जाता है।